ना-कामी-ए-इश्क़ या कामयाबी
दोनों का हासिल ख़ाना-ख़राबी
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तौबा तौबा शैख़ जी तौबा का फिर किस को ख़याल
तेरे कूचे में है सकूँ वर्ना
अब मुझे मानें न मानें ऐ 'हफ़ीज़'
आशिक़ सा बद-नसीब कोई दूसरा न हो
दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका
इश्क़ ने हुस्न की बे-दाद पे रोना चाहा
वो अब्र जो मय-ख़्वार की तुर्बत पे न बरसे
मिटने वाली हसरतें ईजाद कर लेता हूँ मैं
देखा न कारोबार-ए-मोहब्बत कभी 'हफ़ीज़'
कल ज़रूर आओगे लेकिन आज क्या करूँ
वफ़ा जिस से की बेवफ़ा हो गया