आए ठहरे और रवाना हो गए
ज़िंदगी क्या है, सफ़र की बात है
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किस की सदा फ़ज़ाओं में गूँजी है चार-सू
ख़ून मज़दूर का मिलता जो न तामीरों में
सभी तो दोस्त हैं क्यूँ शक अबस हुआ मुझ को
अस्र-ए-जदीद आया बड़ी धूम-धाम से
खींच देता मैं ज़माने पे मोहब्बत के नुक़ूश
इश्क़ की अंजुमन की बात करें
भुला न पाया उसे जिस को भूल जाना था
इर्तिकाब-ए-जुर्म शर की बात है
क्या ज़रूरी है जू-ए-शीर की बात
होता फ़नकार-ए-जदीद और न शाएर होता
न सर छुपाने को घर था न आब-ओ-दाना था