क्या ज़रूरी है जू-ए-शीर की बात
क्यूँ न गंग-ओ-जमन की बात करें
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इर्तिकाब-ए-जुर्म शर की बात है
अस्र-ए-जदीद आया बड़ी धूम-धाम से
न सर छुपाने को घर था न आब-ओ-दाना था
सभी तो दोस्त हैं क्यूँ शक अबस हुआ मुझ को
ख़ून मज़दूर का मिलता जो न तामीरों में
मता-ए-दर्द का ख़ूगर मिरी तलाश में है
भुला न पाया उसे जिस को भूल जाना था
होता फ़नकार-ए-जदीद और न शाएर होता
खींच देता मैं ज़माने पे मोहब्बत के नुक़ूश
इश्क़ की अंजुमन की बात करें
किस की सदा फ़ज़ाओं में गूँजी है चार-सू