न जाने किस लिए रोता हूँ हँसते हँसते मैं
बसा हुआ है निगाहों में आईना कोई
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ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी
छोड़ कर मुझ को कहीं फिर उस ने कुछ सोचा न हो
आग जो बाहर है पहुँचेगी अंदर भी
गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम
मेरे सामने मेरे घर का पूरा नक़्शा बिखरा है
शहर के आईन में ये मद भी लिक्खी जाएगी
रेज़ा रेज़ा रात भर जो ख़ौफ़ से होता रहा
सफ़र ही कोई रहेगा न फ़ासला कोई
हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं
देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे
कब इस ज़मीं की सम्त समुंदर पलट कर आए
जो मेरे पास था सब लूट ले गया कोई