तअस्सुब बर-तरफ़ मस्जिद हो या हो कू-ए-बुत-ख़ाना
रह-ए-दिलदार पर जाता क़दम यूँ भी है और यूँ भी
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भला तू और घर आए मिरे क्यूँ-कर यक़ीं कर लूँ
मरता भला है ज़ब्त की ताक़त अगर न हो
गुदाज़-ए-दिल से परवाना हुआ ख़ाक
मय न हो बू ही सही कुछ तो हो रिंदों के लिए
वो सर ही क्या कि जिस में तुम्हारा न हो ख़याल
चर्चा हमारा इश्क़ ने क्यूँ जा-ब-जा किया
दर्द को रहने भी दे दिल में दवा हो जाएगी
फिरता रहता हूँ मैं हर लहज़ा पस-ए-जाम-ए-शराब
रुख़्सार पर है रंग-ए-हया का फ़रोग़ आज
मरीज़-ए-इश्क़ की जुज़-मर्ग दुनिया में दवा क्यूँ हो