कभी जो आँखों के आ गया आफ़्ताब आगे
तिरे तसव्वुर में हम ने कर ली किताब आगे
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सुनहरे ख़्वाब आँखों में बुना करते थे हम दोनों
वो ब'अद-ए-मुद्दत मिला तो रोने की आरज़ू में
निस्बतें थीं रेत से कुछ इस क़दर
उदास शामों बुझे दरीचों में लौट आया
ख़मोश रह कर पुकारती है
मोहब्बत में कठिन रस्ते बहुत आसान लगते थे
रात-दिन पुर-शोर साहिल जैसा मंज़र मुझ में था
रात ये कौन मिरे ख़्वाब में आया हुआ था
ख़्वाब अपने मिरी आँखों के हवाले कर के
ख़फ़ा हो मुझ से तो अपने अंदर