निस्बतें थीं रेत से कुछ इस क़दर
बादलों के शहर में प्यासा रहा
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घर से मेरा रिश्ता भी कितना रहा
सुनहरे ख़्वाब आँखों में बुना करते थे हम दोनों
आज तेरी याद से टकरा के टुकड़े हो गया
कभी जो आँखों के आ गया आफ़्ताब आगे
उदास शामों बुझे दरीचों में लौट आया
ख़मोश रह कर पुकारती है
इक परिंदे की तरह उड़ गया कुछ देर हुई
हसीन यादों के चाँद को अलविदा'अ कह कर
वो ब'अद-ए-मुद्दत मिला तो रोने की आरज़ू में
मोहब्बत में कठिन रस्ते बहुत आसान लगते थे
ख़्वाब अपने मिरी आँखों के हवाले कर के