हसीन यादों के चाँद को अलविदा'अ कह कर
मैं अपने घर के अँधेरे कमरों में लौट आया
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उदास शामों बुझे दरीचों में लौट आया
वो ब'अद-ए-मुद्दत मिला तो रोने की आरज़ू में
सुनहरे ख़्वाब आँखों में बुना करते थे हम दोनों
रात-दिन पुर-शोर साहिल जैसा मंज़र मुझ में था
इक परिंदे की तरह उड़ गया कुछ देर हुई
मुझ को मालूम था इक रोज़ चला जाएगा!
कभी जो आँखों के आ गया आफ़्ताब आगे
ख़फ़ा हो मुझ से तो अपने अंदर
उस अजनबी से हाथ मिलाने के वास्ते
निस्बतें थीं रेत से कुछ इस क़दर
मोहब्बत में कठिन रस्ते बहुत आसान लगते थे