ख़फ़ा हो मुझ से तो अपने अंदर
वो बारिशों को उतारती है
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उस अजनबी से हाथ मिलाने के वास्ते
रात-दिन पुर-शोर साहिल जैसा मंज़र मुझ में था
वो ब'अद-ए-मुद्दत मिला तो रोने की आरज़ू में
ख़्वाब अपने मिरी आँखों के हवाले कर के
मुझ को मालूम था इक रोज़ चला जाएगा!
कभी जो आँखों के आ गया आफ़्ताब आगे
इक परिंदे की तरह उड़ गया कुछ देर हुई
मोहब्बत में कठिन रस्ते बहुत आसान लगते थे
हसीन यादों के चाँद को अलविदा'अ कह कर
सुनहरे ख़्वाब आँखों में बुना करते थे हम दोनों
घर से मेरा रिश्ता भी कितना रहा