कभी शाम-ए-हिज्र गुज़ारते कभी ज़ुल्फ़-ए-यार सँवारते

कभी शाम-ए-हिज्र गुज़ारते कभी ज़ुल्फ़-ए-यार सँवारते

कटी उम्र अपनी क़फ़स क़फ़स तिरी ख़ुशबुओं को पुकारते

न वो मह-जबीनों की टोलियाँ न वो रंग रंग की बोलियाँ

न मोहब्बतों की वो बाज़ियाँ कभी जीतते कभी हारते

वो जो आरज़ूओं के ख़्वाब थे वो ख़याल थे वो सराब थे

सर-ए-दश्त एक भी गुल न था जिसे आँसुओं से सँवारते

था जो एक लम्हा विसाल का वो रियाज़ था कई साल का

वही एक पल में गुज़र गया जिसे उम्र गुज़री पुकारते

थे जो जान से भी अज़ीज़-तर रहे उम्र भर वही बे-ख़बर

थी ये आरज़ू मिरे चारा-गर मिरी नाव पार उतारते

नहीं लब पे कोई सवाल था मिरा दिल तमाम मलाल था

मैं ख़मोश दर पे खड़ा रहा रहे वो भी गेसू सँवारते

(1198) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Kabhi Sham-e-hijr Guzarte Kabhi Zulf-e-yar Sanwarte In Hindi By Famous Poet Hasan Rizvi. Kabhi Sham-e-hijr Guzarte Kabhi Zulf-e-yar Sanwarte is written by Hasan Rizvi. Complete Poem Kabhi Sham-e-hijr Guzarte Kabhi Zulf-e-yar Sanwarte in Hindi by Hasan Rizvi. Download free Kabhi Sham-e-hijr Guzarte Kabhi Zulf-e-yar Sanwarte Poem for Youth in PDF. Kabhi Sham-e-hijr Guzarte Kabhi Zulf-e-yar Sanwarte is a Poem on Inspiration for young students. Share Kabhi Sham-e-hijr Guzarte Kabhi Zulf-e-yar Sanwarte with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.