था जो एक लम्हा विसाल का वो रियाज़ था कई साल का
वही एक पल में गुज़र गया जिसे उम्र गुज़री पुकारते
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अनीस-ए-जाँ हैं अभी तक निशानियाँ उस की
कभी किताबों में फूल रखना कभी दरख़्तों पे नाम लिखना
अब उस से बढ़ के भला मो'तबर कहें किस को
न वो इक़रार करता है न वो इंकार करता है
साँझ-सवेरे फिरते हैं हम जाने किस वीराने में
ठहरे पानी को वही रेत पुरानी दे दे
पहले सी अब बात कहाँ है
इस दर्जा मेरी ज़ात से उस को हसद हुआ
कोई मौसम भी हम को रास नहीं
मुँह अपनी रिवायात से फेरा नहीं करते