तेरे मेहमाँ के स्वागत का कोई फूल थे हम
जो भी निकला हमें पैरों से कुचल कर निकला
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अमीर-ए-शहर से मिल कर सज़ाएँ मिलती हैं
अब उसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम
ज़रा सी चोट लगी थी कि चलना भूल गए
दर-ओ-दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
तिरी मदद का यहाँ तक हिसाब देना पड़ा
बड़े हिसाब से इज़्ज़त बचानी पड़ती है
हमारे दोस्तों में कोई दुश्मन हो भी सकता है
ख़ुद को इतना जो हवा-दार समझ रक्खा है
मेरी संजीदा तबीअत पे भी शक है सब को
नज़र न आए हम अहल-ए-नज़र के होते हुए
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है