यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूटे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है
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ये बद-नसीबी नहीं है तो और फिर क्या है
दर-ओ-दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
मेरी संजीदा तबीअत पे भी शक है सब को
तू एक साल में इक साँस भी न जी पाया
नज़र न आए हम अहल-ए-नज़र के होते हुए
अमीर-ए-शहर से मिल कर सज़ाएँ मिलती हैं
हमारे दोस्तों में कोई दुश्मन हो भी सकता है
ख़ुद को इतना जो हवा-दार समझ रक्खा है
अब उसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम
ये इंतिक़ाम है या एहतिजाज है क्या है