पहले भी जहाँ पर बिछड़े थे वही मंज़िल थी इस बार मगर
वो भी बे-लौस नहीं लौटा हम भी बे-ताब नहीं आए
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जाम-ए-इश्क़ पी चुके ज़िंदगी भी जी चुके
हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला
आँखों में वो ख़्वाब नहीं बसते पहला सा वो हाल नहीं होता
वक़्त ने रंग बहुत बदले क्या कुछ सैलाब नहीं आए
अपने दुख में रोना-धोना आप ही आया
आँसू तो कोई आँख में लाया नहीं हूँ मैं
वही हुआ कि ख़ुद भी जिस का ख़ौफ़ था मुझे
मुमकिन ही नहीं कि किनारा भी करेगा
इस अक़्ल की मारी नगरी में कभी पानी आग नहीं बनता
कभी तो सेहन-ए-अना से निकले कहीं पे दश्त-ए-मलाल आया
रुकने के लिए दस्त-ए-सितम-गर भी नहीं था