पानी पे बनते अक्स की मानिंद हूँ मगर
आँखों में कोई भर ले तो मिटता नहीं हूँ मैं
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ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका
वक़्त ने रंग बहुत बदले क्या कुछ सैलाब नहीं आए
वही हुआ कि ख़ुद भी जिस का ख़ौफ़ था मुझे
आज न हम से पूछिए कैसा कमाल हो गया
न ही बिजलियाँ न ही बारिशें न ही दुश्मनों की वो साज़िशें
पहले भी जहाँ पर बिछड़े थे वही मंज़िल थी इस बार मगर
हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला
आज फिर दब गईं दर्द की सिसकियाँ
आँसू तो कोई आँख में लाया नहीं हूँ मैं
बाहर जो नहीं था तो कोई बात नहीं थी
मुमकिन ही नहीं कि किनारा भी करेगा
इस अक़्ल की मारी नगरी में कभी पानी आग नहीं बनता