बाहर जो नहीं था तो कोई बात नहीं थी
एहसास-ए-नदामत मगर अंदर भी नहीं था
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जब वक़्त पड़ा था तो जो कुछ हम ने किया था
ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका
उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई
पानी पे बनते अक्स की मानिंद हूँ मगर
इस अक़्ल की मारी नगरी में कभी पानी आग नहीं बनता
थी अजब ही दास्ताँ जब तमाम हो गई
आज फिर दब गईं दर्द की सिसकियाँ
आज न हम से पूछिए कैसा कमाल हो गया
सब कुछ खो कर मौज उड़ाना इश्क़ में सीखा
पहले भी जहाँ पर बिछड़े थे वही मंज़िल थी इस बार मगर
अपने दुख में रोना-धोना आप ही आया
आँसू तो कोई आँख में लाया नहीं हूँ मैं