अपने दुख में रोना-धोना आप ही आया
ग़ैर के दुख में ख़ुद को दुखाना इश्क़ में सीखा
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जब वक़्त पड़ा था तो जो कुछ हम ने किया था
थी अजब ही दास्ताँ जब तमाम हो गई
रास्ता देर तक सोचता रह गया
सब कुछ खो कर मौज उड़ाना इश्क़ में सीखा
रुकने के लिए दस्त-ए-सितम-गर भी नहीं था
जाम-ए-इश्क़ पी चुके ज़िंदगी भी जी चुके
न ही बिजलियाँ न ही बारिशें न ही दुश्मनों की वो साज़िशें
उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई
ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका
हम ख़ुद भी हुए नादिम जब हर्फ़-ए-दुआ निकला
कभी तो सेहन-ए-अना से निकले कहीं पे दश्त-ए-मलाल आया
मुमकिन ही नहीं कि किनारा भी करेगा