आज फिर दब गईं दर्द की सिसकियाँ
आज फिर गूँजता क़हक़हा रह गया
Jaun Eliya
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ये विसाल ओ हिज्र का मसअला तो मिरी समझ में न आ सका
आँसू तो कोई आँख में लाया नहीं हूँ मैं
वक़्त ने रंग बहुत बदले क्या कुछ सैलाब नहीं आए
उस अजनबी से वास्ता ज़रूर था कोई
मिरी दास्ताँ भी अजीब है वो क़दम क़दम मिरे साथ था
न ही बिजलियाँ न ही बारिशें न ही दुश्मनों की वो साज़िशें
पानी पे बनते अक्स की मानिंद हूँ मगर
रुकने के लिए दस्त-ए-सितम-गर भी नहीं था
बाहर जो नहीं था तो कोई बात नहीं थी
सब कुछ खो कर मौज उड़ाना इश्क़ में सीखा
आँखों में वो ख़्वाब नहीं बसते पहला सा वो हाल नहीं होता