अब न कोई मंज़िल है और न रहगुज़र कोई
जाने क़ाफ़िला भटके अब कहाँ कहाँ यारो
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हो चुकी अब शाइ'री लफ़्ज़ों का दफ़्तर बाँध लो
हारून की आवाज़
कब तक रहूँ मैं ख़ौफ़-ज़दा अपने आप से
हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग
तुझ से वफ़ा न की तो किसी से वफ़ा न की
मैं सो रहा था और कोई बेदार मुझ में था
यम-ब-यम फैला हुआ है प्यास का सहरा यहाँ
आईना-दर-आईना
ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं
इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
हर तरफ़ इक मुहीब सन्नाटा
ईमाँ भी लाज रख न सका मेरे झूट की