दश्त-ए-वफ़ा में जल के न रह जाएँ अपने दिल
वो धूप है कि रंग हैं काले पड़े हुए
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तज़ईन-ए-बज़्म-ए-ग़म के लिए कोई शय तो हो
अब तो दीवानों से यूँ बच के गुज़र जाती है
कभी आहें कभी नाले कभी आँसू निकले
मिलने को है खमोशी-ए-अहल-ए-जुनूँ की दाद
पास-ए-नामूस-ए-तमन्ना हर इक आज़ार में था
दिल को ग़म रास है यूँ गुल को सबा हो जैसे
यादें चलें ख़याल चला अश्क-ए-तर चले
वो तक़ाज़ा-ए-जुनूँ अब के बहारों में न था
देखे हैं जो ग़म दिल से भुलाए नहीं जाते
गो दाग़ हो गए हैं वो छाले पड़े हुए
लाएगा रंग ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ देखते रहो