सारे दरिया फूट पड़ेंगे इक दूजे के बीच
इक दिन आ कर मिल जाएगी तेरी मेरी प्यास
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अपने ख़ूँ को ख़र्च किया है और कमाया शहर
हम से अपने गाँव की मिट्टी के घर छीने गए
दूर दूर तक सन्नाटा है कोई नहीं है पास
मिरी आँखों को आँखों का किनारा कौन देगा
मिरे चेहरे को चेहरा कब इनायत कर रहे हो
इस क़दर बढ़ने लगे हैं घर से घर के फ़ासले
बे-घर होना बे-घर रहना सब अच्छा ठहरा