मिरे साज़-ए-नफ़स की ख़ामुशी पर रूह कहती है
न आई मुझ को नींद और सो गया अफ़्साना-ख़्वाँ मेरा
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चुराने को चुरा लाया मैं जल्वे रू-ए-रौशन से
इक अख़्गर-ए-जमाल फ़रोज़ाँ ब-शक्ल-ए-दिल
दिल है और ख़ुद नगरी ज़ौक़-ए-दुआ जिस को कहें
ज़ुहूर-ए-पैकरी सहरा में है सिर्फ़ इक निशाँ मेरा
ख़िरद को ख़ाना-ए-दिल का निगह-बाँ कर दिया हम ने
ज़बाँ से दिल का फ़साना अदा किया न गया
अफ़्सुर्दगी भी हुस्न है ताबिंदगी भी हुस्न
टीपू-सुल्तान
पहनाई