मैं सारी उम्र अहद-ए-वफ़ा में लगा रहा

मैं सारी उम्र अहद-ए-वफ़ा में लगा रहा

अंजाम कह रहा है ख़ता में लगा रहा

सारे पुराने ज़ख़्म नए ज़ख़्म ने भरे

बेकार इतने दिन मैं दवा में लगा रहा

ऐसा नहीं कि चाँद न उतरा हो बाम पर

मैं ही तमाम रात हया में लगा रहा

ऐ अक़्ल और होगा कोई उस की शक्ल का

दिल कैसे मान ले वो जफ़ा में लगा रहा

घर कर लिया उदास फ़ज़ाओं ने दिल में मैं

बाहर की ख़ुश-गवार फ़ज़ा में लगा रहा

क्या है ये ज़िंदगी वो बताएगा किस तरह

जो शख़्स सारी उम्र क़ज़ा में लगा रहा

सूरज तो जा के चैन से बिस्तर पे सो गया

शब भर मगर चराग़ हवा में लगा रहा

मुझ से नमाज़-ए-इश्क़ मुकम्मल नहीं हुई

किस मुँह से मैं कहूँ कि ख़ुदा में लगा रहा

बहरा न मुझ को कर दे ये ख़ामोशियों का शोर

केवल इसी लिए मैं सदा में लगा रहा

क्यूँ मेरे हक़ में फ़ैसला उतरा नहीं कभी

मैं भी तो उस के साथ दुआ में लगा रहा

वो चाहता है क्या ये मुझे थी ख़बर मगर

में उस के साथ साथ दुआ में लगा रहा

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