Ghazals of Iqbal Kausar

Ghazals of Iqbal Kausar
नामइक़बाल कौसर
अंग्रेज़ी नामIqbal Kausar

सुपुर्द-ए-ग़म-ज़दगान-ए-सफ़-ए-वफ़ा हुआ मैं

मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया

मैं दर पे तिरे दर-ब-दरी से निकल आया

करें हिजरत तो ख़ाक-ए-शहर भी जुज़-दान में रख लें

काहिश-ए-ग़म ने जिगर ख़ून किया अंदर से

कभी आइने सा भी सोचना मुझे आ गया

जो ज़ख़्म जम्अ किए आँख-भर सुनाता हूँ

जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं

'इक़बाल' यूँही कब तक हम क़ैद-ए-अना काटें

इक लौ थी मिरे ख़ून में तहलील तो ये थी

अगरचे मुझ को बे-तौक़-ओ-रसन-बस्ता नहीं छोड़ा

अभी मिरा आफ़्ताब उफ़ुक़ की हुदूद से आश्ना नहीं है

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