मैं आईना बनूँगा तू पत्थर उठाएगा
इक दिन खुली सड़क पे ये नौबत भी आएगी
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वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
इक तबीअत थी सो वो भी ला-उबाली हो गई
सूरज हूँ चमकने का भी हक़ चाहिए मुझ को
वो चाँद है तो अक्स भी पानी में आएगा
संग-दिल हूँ इस क़दर आँखें भिगो सकता नहीं
सज़ा तो मिलना थी मुझ को बरहना लफ़्ज़ों की
अजब सदा ये नुमाइश में कल सुनाई दी
कट गया जिस्म मगर साए तो महफ़ूज़ रहे
सरसब्ज़ दिल की कोई भी ख़्वाहिश नहीं हुई
मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब
हर घड़ी का साथ दुख देता है जान-ए-मन मुझे