सज़ा तो मिलना थी मुझ को बरहना लफ़्ज़ों की
ज़बाँ के साथ लबों को रफ़ू भी होना था
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सरसब्ज़ दिल की कोई भी ख़्वाहिश नहीं हुई
ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला
हर कसी को कब भला यूँ मुस्तरद करता हूँ मैं
साए की तरह बढ़ न कभी क़द से ज़ियादा
उस ने भी कई रोज़ से ख़्वाहिश नहीं ओढ़ी
मैं आईना बनूँगा तू पत्थर उठाएगा
ख़त्म रातों-रात उस गुल की कहानी हो गई
एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी
बढ़ गया है इस क़दर अब सुर्ख़-रू होने का शौक़
दरवेश नज़र आता था हर हाल में लेकिन
प्यासे के पास रात समुंदर पड़ा हुआ
उस आइने में देखना हैरत भी आएगी