सूरज हूँ चमकने का भी हक़ चाहिए मुझ को
मैं कोहर में लिपटा हूँ शफ़क़ चाहिए मुझ को
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लगा दी काग़ज़ी मल्बूस पर मोहर-ए-सबात अपनी
बगूला बन के समुंदर में ख़ाक उड़ाना थी
बढ़ गया है इस क़दर अब सुर्ख़-रू होने का शौक़
दहर के अंधे कुएँ में कस के आवाज़ा लगा
प्यासे के पास रात समुंदर पड़ा हुआ
ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला
फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई
एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी
उस आइने में देखना हैरत भी आएगी
दुनिया ने ज़र के वास्ते क्या कुछ नहीं किया
वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
मिरे ही हर्फ़ दिखाते थे मेरी शक्ल मुझे