फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई
तंग रक्खा तो हमें अपनी क़बा ने रक्खा
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वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
ख़ौफ़ दिल में न तिरे दर के गदा ने रक्खा
मुसलसल जागने के बाद ख़्वाहिश रूठ जाती है
इन्दर थी जितनी आग वो ठंडी न हो सकी
मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
पता कैसे चले दुनिया को क़स्र-ए-दिल के जलने का
ख़ुदा ने जिस को चाहा उस ने बच्चे की तरह ज़िद की
ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला
अजब सदा ये नुमाइश में कल सुनाई दी
ऐसे घर में रह रहा हूँ देख ले बे-शक कोई
जैसे हर चेहरे की आँखें सर के पीछे आ लगीं
मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब