एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
एक दुनिया की कशिश है जो इधर खींचती है
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है
ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
अब आ भी जाओ, बहुत दिन हुए मिले हुए भी
अजब है रंग-ए-चमन जा-ब-जा उदासी है