रहबान का क़ैस का महबूब है तू
और बरहमन-ओ-शैख़ का मर्ग़ूब है तू
हों अहल-ए-कुनिश्त या कि अहल-ए-मस्जिद
हर रंग के तालिबों का मतलूब है तू
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जो है सो पस्त सब से आली तू है
चलने का तो हो गया बहाना तुम को
ज़ोरों पे है रोज़ ना-तवानी मेरी
मैं ख़ाक था आदमी बनाया तू ने
है उन की नज़ाकतों का पाना मुश्किल क्या कीजे बयाँ
जो नख़्ल हो ख़ुश्क उस का फलना क्या है