'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में