परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक
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है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है