की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
कब वो सुनता है कहानी मेरी
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो