हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
काबे में जा रहा तो न दो ताना क्या कहें
धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का