आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
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Allama Iqbal
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आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और