ये दलील-ए-ख़ुश-दिली है मिरे वास्ते नहीं है
वो दहन कि है शगुफ़्ता वो जबीं कि है कुशादा
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हुज़ूर-ए-यार भी आँसू निकल ही आते हैं
लुत्फ़-ए-वफ़ा नहीं कि वो बेदाद-गर नहीं
रब्त है हुस्न ओ इश्क़ में बाहम
मुझ को तो बर्बाद किया है
लंदन की एक शाम
ऐ हक़-सरिश्त आइना-ए-हक़-नुमा हैं हम
हमें भी देख कि हम आरज़ू के सहरा में
वो मिले तो बे-तकल्लुफ़ न मिले तो बे-इरादा
ये डर है क़ाफ़िले वालो कहीं न गुम कर दे
दाग़ सीने पे जो हमारे हैं