अँधेरी शाम थी बादल बरस न पाए थे
वो मेरे पास न था और मैं खुल के रोया था
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जिहाद-ए-इश्क़ में हम आशिक़ों को वार देना
हमारे सर पे कोई हाथ था न साया था
नज़्म
रब नवाज़ माइल
कोई ज़ारी सुनी नहीं जाती कोई जुर्म मुआफ़ नहीं होता
दश्त-नवर्दी में कोई सात था
इसी दुनिया में दुनियाएँ हमारी भी बसी हैं
सुनहरी नींद से किस ने मुझे बेदार कर डाला
किसी तारीक गोशे में बसर होगी हमारी
ख़िज़ाँ तुझ पर ये कैसा बर्ग-ओ-बार आने लगा है
घिरा हुआ हूँ जनम-दिन से इस तआक़ुब में