हुस्न-ओ-उलफ़त साथ हैं आग़ाज़ से अंजाम तक

हुस्न-ओ-उलफ़त साथ हैं आग़ाज़ से अंजाम तक

मेरा अफ़्साना सुना जाएगा तेरे नाम तक

ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ हैं गर्दिश-ए-अय्याम तक

लाला-ओ-गुल का तबस्सुम है चमन में शाम तक

क्या ख़बर पर्दा-ब-पर्दा कितने जल्वे हैं निहाँ

चश्म-ए-ज़ाहिर-बीं ने देखा उन को हुस्न-ए-आम तक

जिन के पैमाने भरे हैं उन पे क्या तेरा करम

लुत्फ़ तो साक़ी है जब भर जाएँ ख़ाली जाम तक

जिस ने जीने का इरादा कर लिया वो जी गया

उस से कतरा कर चली है गर्दिश-ए-अय्याम तक

बन गए शैख़-ओ-बरहमन मालिक-ए-दैर-ओ-हरम

फ़ैज़-ए-मय-खाना मगर जारी है ख़ास-ओ-आम तक

साँस लेना तो नहीं कोई दलील-ए-ज़िंदगी

ज़िंदगी कैसी नहीं अब ज़िंदगी का नाम तक

हुस्न की पहली नज़र ही दिल की दुनिया खो गई

लुट गए आग़ाज़ में देखा नहीं अंजाम तक

अब तो साक़ी अज़्मत-ए-मय-खाना तेरे हाथ है

गर्दिश-ए-अय्याम आ पहुँची है दौर-ए-जाम तक

मय-कदा का हाल कुछ हो चश्म-ए-साक़ी कुछ कहे

है सुराही तक नज़र 'आरिफ़' किसी की जाम तक

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