'मोहसिन' बुरे दिनों में नया दोस्त कौन हो
है जिस का पहला क़र्ज़ उसी से सवाल कर
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कल रात वो झगड़ती रही बात बात पर
वो है आग वो पानी है
ख़ुद को मैं भला ज़ेर-ए-ज़मीं कैसे दबाता
ख़याल-ओ-ख़्वाब को पाबंद-ए-ख़ू-ए-यार रखा
सर उठाया इश्क़ ने तो चोट इक भारी पड़ी
तेरी ही तरह आता है आँखों में तिरा ख़्वाब
मैं बैठ गया ख़ाक पे तस्वीर बनाने
सैलाबों के बा'द हम ऐसे दीवाने हो जाते हैं
दिलासा दे वगर्ना आँख को गिर्या पकड़ लेगा
देर से सो कर उठने वालो तड़पो लेकिन शोर न हो
बहुत अच्छा तिरी क़ुर्बत में गुज़रा आज का दिन