मैं बैठ गया ख़ाक पे तस्वीर बनाने
जो किब्र थे मुझ में वो तिरी याद से निकले
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हम खड़े हैं हाथ यूँ बाँधे हुए
ख़ुद को मैं भला ज़ेर-ए-ज़मीं कैसे दबाता
जैसे सज्दे में क़त्ल हो कोई
जिस दिन के गुज़रते ही यहाँ रात हुई है
दूरियों में क़राबतों का मज़ा
जगह बदलने से हैअत कहाँ बदलती है
तेरे बग़ैर लगता है गोया ये ज़िंदगी
ख़याल-ओ-ख़्वाब को पाबंद-ए-ख़ू-ए-यार रखा
कार-ए-आसान को दुश्वार बना जाता है
ख़ौफ़-ज़दा लोगों से रस्म-ओ-राह बढ़ाते फिरते हैं
हर नए साल नया पेड़ लगा देता हूँ
समाअ'तों के लिए राज़ छोड़ आए हैं