ख़ुद को मैं भला ज़ेर-ए-ज़मीं कैसे दबाता
जितने भी खंडर निकले वो आबाद से निकले
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मुझे मलाल भी उस की तरफ़ से होता है
हवा चराग़ बुझाने लगी तो हम ने भी
जैसे सज्दे में क़त्ल हो कोई
गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का
मैं बैठ गया ख़ाक पे तस्वीर बनाने
दूरियों में क़राबतों का मज़ा
दिलासा दे वगर्ना आँख को गिर्या पकड़ लेगा
तू ख़ुद भी जागता रह और मुझ को भी जगाता रह
तेरे बग़ैर लगता है गोया ये ज़िंदगी
बहुत कुछ तुम से कहना था मगर मैं कह न पाया
क्या ज़माना था कि हम ख़ूब जचा करते थे
जानाँ गए दिनों का तअ'ल्लुक़ बहाल कर