क्या ज़माना था कि हम ख़ूब जचा करते थे
अब तो माँगे की सी लगती हैं क़बाएँ अपनी
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वो मजबूरी मौत है जिस में कासे को बुनियाद मिले
तेरी ही तरह आता है आँखों में तिरा ख़्वाब
चराग़-ए-राहगुज़र है जला रहेगा वो
जगह बदलने से हैअत कहाँ बदलती है
जब वाहिमे आवाज़ की बुनियाद से निकले
हम अपने ज़ाहिर ओ बातिन का अंदाज़ा लगा लें
हम-साए का सुख तो उस के ख़्वाब का पूरा होना है
ख़ुद ही तस्लीम भी करता हूँ ख़ताएँ अपनी
बहुत कुछ तुम से कहना था मगर मैं कह न पाया
वो है आग वो पानी है
ख़याल-ओ-ख़्वाब को पाबंद-ए-ख़ू-ए-यार रखा
जिस दिन के गुज़रते ही यहाँ रात हुई है