जिस लफ़्ज़ को मैं तोड़ के ख़ुद टूट गया हूँ
कहता भी तो वो उस को गवारा नहीं होता
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कल रात वो झगड़ती रही बात बात पर
वो है आग वो पानी है
हम-साए का सुख तो उस के ख़्वाब का पूरा होना है
मिट्टी हो कर इश्क़ किया है इक दरिया की रवानी से
दूरियों में क़राबतों का मज़ा
समाअ'तों के लिए राज़ छोड़ आए हैं
घर में रहना मिरा गोया उसे मंज़ूर नहीं
ख़्वाब को सूरत-ए-हालात बना जाता है
डर है कहीं मैं दश्त की जानिब निकल न जाऊँ
सर उठाया इश्क़ ने तो चोट इक भारी पड़ी
'मोहसिन' बुरे दिनों में नया दोस्त कौन हो
जिस दिन के गुज़रते ही यहाँ रात हुई है