घर में रहना मिरा गोया उसे मंज़ूर नहीं
जब भी आता है नया काम बता जाता है
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मिरे बारे में कुछ सोचो मुझे नींद आ रही है
अजीब शख़्स था लौटा गया मिरा सब कुछ
कल रात वो झगड़ती रही बात बात पर
ख़ुद को मैं भला ज़ेर-ए-ज़मीं कैसे दबाता
चराग़-ए-राहगुज़र है जला रहेगा वो
गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का
जब वाहिमे आवाज़ की बुनियाद से निकले
हम अपने ज़ाहिर ओ बातिन का अंदाज़ा लगा लें
देर से सो कर उठने वालो तड़पो लेकिन शोर न हो
जवाब देता है मेरे हर इक सवाल का वो
ख़्वाब को सूरत-ए-हालात बना जाता है
हम खड़े हैं हाथ यूँ बाँधे हुए