मज्लिस में मिरे ज़िक्र के आते ही उठे वो
बदनामी-ए-उश्शाक़ का एज़ाज़ तो देखो
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क़हर है मौत है क़ज़ा है इश्क़
एजाज़-ए-जाँ-दही है हमारे कलाम को
किस पे मरते हो आप पूछते हैं
जो तेरे मुँह से न हो शर्मसार आईना
कुछ क़फ़स में इन दिनों लगता है जी
ग़ुस्सा बेगाना-वार होना था
आप की कौन सी बढ़ी इज़्ज़त
जूँ निकहत-ए-गुल जुम्बिश है जी का निकल जाना
सौदा था बला-ए-जोश पर रात
हँस हँस के वो मुझ से ही मिरे क़त्ल की बातें
वादे की जो साअत दम-ए-कुश्तन है हमारा
दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे