कुछ क़फ़स में इन दिनों लगता है जी
आशियाँ अपना हुआ बर्बाद क्या
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उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
बहर-अयादत आए वो लेकिन क़ज़ा के साथ
सौदा था बला-ए-जोश पर रात
राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा
हँस हँस के वो मुझ से ही मिरे क़त्ल की बातें
है कुछ तो बात 'मोमिन' जो छा गई ख़मोशी
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
दिल-बस्तगी सी है किसी ज़ुल्फ़-ए-दोता के साथ
सब्र वहशत-असर न हो जाए
माशूक़ से भी हम ने निभाई बराबरी
शोख़ कहता है बे-हया जाना