थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब
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उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
धो दिया अश्क-ए-नदामत ने गुनाहों को मिरे
वो आए हैं पशेमाँ लाश पर अब
शब जो मस्जिद में जा फँसे 'मोमिन'
राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा
करता है क़त्ल-ए-आम वो अग़्यार के लिए
दिल क़ाबिल-ए-मोहब्बत-ए-जानाँ नहीं रहा
असर उस को ज़रा नहीं होता
इतनी कुदूरत अश्क में हैराँ हूँ क्या कहूँ
वादा-ए-वस्लत से दिल हो शाद क्या
उस नक़्श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील
किसी का हुआ आज कल था किसी का