बे-ख़ुद थे ग़श थे महव थे दुनिया का ग़म न था
जीना विसाल में भी तो हिज्राँ से कम न था
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ये उज़्र-ए-इम्तिहान-ए-जज़्ब-ए-दिल कैसा निकल आया
है दिल में ग़ुबार उस के घर अपना न करेंगे
न इंतिज़ार में याँ आँख एक आन लगी
हो गया राज़-ए-इश्क़ बे-पर्दा
तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया
मैं अगर आप से जाऊँ तो क़रार आ जाए
एजाज़-ए-जाँ-दही है हमारे कलाम को
ने जाए वाँ बने है ने बिन जाए चैन है
शोख़ कहता है बे-हया जाना