किस पे मरते हो आप पूछते हैं
मुझ को फ़िक्र-ए-जवाब ने मारा
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उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
इस वुसअत-ए-कलाम से जी तंग आ गया
आँखों से हया टपके है अंदाज़ तो देखो
है शर्म-ए-गुनह से जाँ कैसी बे-ताब
'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़
करता है क़त्ल-ए-आम वो अग़्यार के लिए
राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा
जूँ निकहत-ए-गुल जुम्बिश है जी का निकल जाना
महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया
उस नक़्श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील