फेरा बहार का तो बरस दो बरस में है
ये चाल है ख़िज़ाँ की जो रुक रुक के थम गई
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तिरे जल्वे तेरे हिजाब को मेरी हैरतों से नुमू मिली
नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई
सहर-ए-अज़ल को जो दी गई वही आज तक है मुसाफ़िरी
क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में
मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया
ध्यान की मौज को फिर आइना-सीमा कर लें
की शब-ए-हश्र मिरी शाम-ए-जवानी तुम ने
परछाइयाँ
बस्तियाँ कैसे न मम्नून हों दीवानों की
फिर बहार आई है फिर जोश में सौदा होगा